
रंजीत कुमार (वरिष्ठ पत्रकार)
पिछले सप्ताह जापान ने भारत, अमेरिका, आस्ट्रेलिया और जापान के बीच चतुर्पक्षीय वार्ता ढांचा के गठन का प्रस्ताव रखा तो अंतरराष्ट्रीय सामरिक हलकों में सनसनी फैल गई। पूछा जाने लगा कि क्या इसका इरादा चीन की उभरती ताकत को चुनौती देना है? भारत ने इस पर बहुत संभल कर जवाब दिया । कहा कि भारत अपने राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर इस तरह के कई अन्य त्रिपक्षीय वार्ता ढांचे में भाग लेता रहा है। इसलिये भारत जापान द्वारा प्रस्तावित चतुर्पक्षीय वार्ता में भाग ले सकता है। इस चतुर्पक्षीय वार्ता ढांचे के प्रस्ताव पर जब अमरीका ने भी पक्ष में बयान देते हुए इसकी जरूरत बताई तब चीन चुप नहीं रह सकता था। उसने कहा कि चतुर्पक्षीय वार्ता ढांचा का प्रस्ताव चीन की घेराबंदी करने और उस पर अंकुश लगाने के इरादे से है जो कतई कामयाब नहीं हो सकता।
चारों देश भले ही इससे इनकार करें लेकिन चारों देश चीन की आक्रामक, विस्तारवादी और प्रभुत्ववादी नीतियों से त्रस्त दिख रहे हैं। सबसे पहले तो चीन ने दक्षिण चीन सागर के इलाके में कृत्रिम द्वीपों का निर्माण कर उन पर सैन्य अड्डे स्थापित किये और इसके साथ श्रीलंका जैसे छोटे देशों के यहां विकास की बड़ी ढांचागत परियोजनाओं को लागू कर अरबों डालर खर्च किये और उस देश को अपने कर्ज के जाल में फंसा दिया। इसके साथ ही उसने पूरी पृथ्वी पर राजमार्गों का जाल बिछाने की वन बेल्ट वन रोड की महत्वाकांक्षी योजना को लागू करना शुरू किया है जिसके जरिये वह छोटे देशों को अपने आगोश में लेने में कामयाब होगा। दक्षिण चीन सागर के इलाके पर अपना प्रादेशिक अधिकार जता कर चीन इस इलाके से होने वाले समुद्री व्यापार पर अपना नियंत्रण स्थापित करना चाहता है।
चीन ने समझ लिया है कि उसके इन्हीं इरादों के खिलाफ चारों देश एकजुट होना चाहते हैं इसलिये उसकी शंका सही है। चीन को खुद सोचना चाहिये कि इस तरह के चतुर्पक्षीय वार्ता ढांचे की जरूरत पड़ी ही क्यों ? चीन हाल के वर्षों में अपने आसपास के इलाकों से लेकर दूरदराज के हिंद महासागर और अफ्रीका तक में अपनी आक्रामक सामरिक और आर्थिक नीति का इजहार करने लगा है जिससे सारी दुनिया में चिंता की लहर फैल गई है।
चीन की इन्ही विस्तारवादी नीतियों का मुकाबला करने के लिये जापान और अमरीका ने चार देशों के चतुर्पक्षीय वार्ता ढांचे का प्रस्ताव किया जिसे लेकर चीन इसलिये चिंतित हो गया है कि उसकी विस्तारवादी नीतियों का मुकाबला करने के लिये दुनिया की चार बड़ी ताकतें गठजोड़ करना चाहती हैं।
चतुर्पक्षीय वार्ता का प्रस्ताव कोई नया नहीं है। करीब एक दशक पहले बंगाल की खाड़ी में उक्त चारों देशों और सिंगापुर के साथ पांच देशों का एक साझा नौसैनिक अभ्यास 2007 में हुआ था तभी चीन के कान खड़े हुए थे और उसने इसका औपचारिक तौर पर राजनयिक विरोध किया था। तब चार देशों का वार्ता समूह गठित करने के प्रस्ताव से पीछे हटने वाला आस्ट्रेलिया पहला देश था लेकिन अब ऑस्ट्रेलिया इस वार्ता समूह में शामिल होने पर सहमति दे चुका है।
जल्द ही इन चारों देशों की एक साझा बैठक होगी जिस पर सारी दुनिया की निगाह रहेगी क्योंकि यह गुट परोक्ष तौर पर चीन की विस्तारवादी समर नीति को चुनौती देने के उपायों पर विचार करेगा और आने वाले दिनों में एक ऐसी साझी रणनीति पर काम शुरू हो सकता है जिससे चीन के मंसूबों पर पानी फिर सकता है।
